तुम जो गुजरी हो सरसराती पवन सी हृदय स्पंदित करती प्रकाश पुंज सी रेखा खींचती, मन चाहता है तुम्हें सम्मान दूँ , परन्तु किस नाम से पुकारूँ तुम्हें क्या नाम दूँ ?
वो ललाट का तेज़ लहलहाते केश स्वयं रति आयी हो जैसे बदल कर भेष। चेहरे की रक्तिम लाली, क्या क्षितिज से उतारी है? वो कमान सी भौहें क्या इंद्रधनुष की परछाई हैं? पलकें खुले तो दामिनी सी कौंधती है। कामिनी तुम- दामिनी तुम, तुम्हें कितने उपनाम दूँ ? किस नाम से पुकारूं तुम्हें क्या नाम दूँ ?
तुम खिलखिलाती हो तो बहार सी आ जाती है चलती हो ऐसे, ज्यों नागिन बल खाती है। शाइस्तगी देखूँ तुम्हारी तो राजकुमारी सी लगती हो, या कोई मेनका-रम्भा धरा पर उतरी हो?
तुम्हारे गुजरने के बाद रह जाती है एक अपूरणीय शून्यता, मन को सालता, बेचैन करता अजीब सा सन्नाटा। अनायास बेमौसम पतझड़ सा लगता है, पक्षियों का कलरव नदी की कलकल शोर सा लगता है। मन ही मन घुटता रहूँ, या विचारों को जुबान दूँ ? किस नाम से पुकारूँ तुम्हें क्या नाम दूँ ?
एक अजीब सा रिश्ता बांध गयी तुम, जीवन पर जैसे छा गई तुम, सोने में तुम जागने में तुम वो नींदों में बड़बड़ाने में तुम, अभी यहीं थी, अभी नहीं हो मरीचिका सी तुम, इस अजीब से रिश्ते को क्या नाम दूँ ? किस नाम से पुकारूं तुम्हें क्या नाम दूँ ?
उनींदी रातों मेंअक्सर, सोचा करता हूँ क्यों इतना बेचैन सा रहता हूँ? नींद से अनबन क्यों मेरी क्यों करवटें बदलता हूँ? यहाँ प्रश्न भी मेरे, उत्तर भी मेरे, सर्प से रेंगते, मनमथते मेरे रचे प्रश्न-नर्क भी मेरे। यहाँ तुम कहाँ जो जवाब दो, इस ऊहापोह, प्रश्न-नर्क से मुझे निकाल दो। किस दिशा में आवाज दूँ तुम्हें कहाँ पैगाम हूँ ? किस नाम से पुकारूं तुम्हें क्या नाम दूँ ? ........ तनुज पंत 'अनंत'
Adbhut kavita
अनन्य