लोकतन्त्र का काला सच या जनसेवा की हकीकत

सार्वजनिक अवकाश होने के कारण गुप्ता जी को आज कार्यालय जाने की कोई टेंशन नहीं थी। लंबी तानकर सोने का मन था। गुप्ता जी का मानना था कि जिंदगी का असली मजा तो सोने में है। बीबी- बच्चों से कल रात ही करबद्ध प्रार्थना कर ली थी कि कृपा करके सुबह- सुबह डिस्टर्ब न करें। बड़े – बड़े पुण्यकर्मों के बाद तो छुट्टी नसीब होती है, सो जी भरकर सो लेने दें ।

सुबह के सात ही बजे थे , कि पत्नी ने झिंझोड़- झिंझोड़ कर जगा दिया।

अजी, उठो न। कब से चिल्ला रही हूँ , इंसान हो या कुंभकर्ण ?”

क्या हुआ, क्या बात है? सुबह- सुबह नींद क्यों खराब कर रही हो।

गुप्ता जी मन हुआ कि चीख- चीखकर आसमान सर पर उठा लें, पर एक आम भारतीय पति की तरह मजबूरी में गुस्सा पीने की आदत उन्हें पड़ चुकी थी।

अरे, रामभरोसे आया है, अपना दूधवाला।

तो मैं क्या करूँ? दूध तो तुमने लेना है न।

वो आप से मिलना चाहता है। कोई जरूरी काम है शायद।

मन ही मन रामभरोसे की सात पुश्तों को कोसते हुए आखिर गुप्ता जी ने बिस्तर छोड़ ही दिया। मुँह धोकर बैठक में पहुंचे। रामभरोसे जी विराजमान थे।

राम- राम बाबूजी। आज का अखबार पढ़ा आपने?

कहाँ यार। अभी तो मैं सो ही रहा था। ऐसा क्या छप गया अखबार में?

अपने हाथ में पकड़े हुए अखबार को खोलते हुए रामभरोसे बोला –“ देखिए न बाबूजी। इसमें खबर छपी है कि एक सेठ ने सरकार में दायित्व लेने के लिए लाखों रूपए दिए थे, बेचारे को किसी ने ठग लिया। पैसे भी चले गए और पद भी नहीं मिला।

अरे, दलाल और धोखेबाज तो हर जगह हैं रामभरोसे। पड़ोस वाले वर्मा का हाल पता है न, बेचारे ने लड़के की नौकरी के चक्कर में पूरे सात लाख गंवा दिए। दलाल पैसे हड़प गया। न नौकरी मिली , न ही पैसे वापस मिल रहे हैं।

बाबूजी, उसने तो नौकरी के चक्कर में दिए थे, नौकरी मिल जाती तो जिंदगी भर मौज करता। वेतन पेंशन सब कुछ मिलता। पर इस सेठ को क्या पड़ी थी? जनसेवा का ऐसा क्या भूत चढ़ा था कि लाखों गवां दिए। जनसेवा ही करनी थी तो कुछ गरीबों की मदद ही कर देते। ये पद और दायित्व की क्या जरूरत थी?

अब तक गुप्ता जी की नींद पूरी तरह भाग चुकी थी। गुस्सा भी ढीला पड़ गया था। श्रीमती जी चाय ले आई। गुप्ता जे ने चाय की चुस्की ली। अदरख के स्वाद को गले में रोकते हुए तरस भरी निगाहों से रामभरोसे को निहारा और बोले-

भाई रामभरोसे, एक बात बताओ ? तुमने किसी मंत्री, विधायक या किसी जनप्रतिनिधि को गरीबी और मुफ़लिसी में देखा है? क्या तुम्हें पता है ये चुनाव लड़ने के लिए लाखों करोड़ों रूपए क्यों खर्च कर देते हैं?

रामभरोसे कुछ न बोला। बस चुपचाप गुप्ता जी को देख रहा था। गुप्ता जी भी भाषण के मूड में आ गए।

असल बात तो ये है भाई कि ये भी शुद्ध इनवेस्टमेंट है। लोग लाखों- करोड़ों रूपए खर्च कर चुनाव लड़ते हैं। जीतने के बाद उससे कई गुना ज्यादा बटोरने के चक्कर में लगे रहते हैं। यूं समझ लो जैसे तुम पैसा लगाकर पैसा कमाने के लिए एक नई भैंस खरीदते हो, तो ये तुम्हारा इनवेस्टमेंट हुआ।

पर ये इतना पैसा कमाते कैसे हैं बाबूजी? अब रामभरोसे की आँखों में जिज्ञासा नहीं बल्कि शरारत थी।

तुम सब जानते हो भाई। इतने भी भोले मत बनो। बस यूं समझ लो कि कि एक बार कुर्सी पर बैठ गए तो चारों और से पैसे की भरमार। कमीशन , भ्रष्टाचार, घोटाला ये शब्द तो सुने ही हैं न तुमने। या यूं ही सुबह- सुबह फिरकी ले रहे हो। चाहो तो तुम भी टिकट खरीदो, पैसा खर्च करो , चुनाव जीतो और जीत गए तो आने वाली कई पीढ़ियों तक का इंतजाम कर लो।

अरे बाबूजी आप तो बुरा मान गए। अपनी ऐसी क्या बिसात? ये चुनाव- वुनाव लड़ना अपने बस की बात नहीं। हमें कौन टिकट देगा ? और चुनाव लड़ भी लिए तो कौन हमें वोट देगा। इस सब में बहुत रिस्क नजर आता है हमको।

समझ गए न तो अब सुबह- सुबह क्यों अपना और मेरा समय बरबाद कर रहे हो? गुप्ताजी झल्लाए।

पर बाबूजी सोच रहे हैं कि कहीं कोई दायित्व डायरेक्ट बिकाऊ हो तो ससुर गाँव की दस बीघा जमीन बेचकर शॉर्टकट में हम भी इनवेस्टमेंट कर लें। आखिर अपनी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य हमें भी तो सुरक्षित करना है न। और साथ में जनसेवा का भी नाम हो जाएगा। डर केवल इस बात का है कि हमें भी कोई ऐसा दलाल न मिल जाए, जैसा इस सेठ को मिला।

अब गुप्ता जी के पास रामभरोसे की बात का न कोई उत्तर था और न ही कोई सलाह।

अच्छा भाई। अब मुझे फ्रेश होना है। यह कहते हुए गुप्ता जी बाथरूम की और चल दिए।

…. प्रदीप बहुगुणादर्पण

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