सरकारी शिक्षा की बदहाल स्थिति : जिम्मेदार कौन?


(आजकल हम देखते हैं  कि सोशल मीडिया पर अधिकांश समूहों में, समाचार पत्रों की सुर्खियों में,बड़ी-बड़ी सरकारी बैठकों में , गली मौहल्ले के नुक्कड़ों और चाय की दुकानों में  सरकारी स्कूलों की बदहाल स्थिति पर विशेष चिंता प्रदर्शित की जा रही है । सरकारी शिक्षा की वर्तमान स्थिति की पड़ताल करती, सोचने पर मजबूर कर देने वाली  तनुज पंत ‘अनंत ‘ की सटीक टिप्पणी……….)  
(तनुज पंत अनंत‘  एक बैंक अधिकारी हैं। 
लेखन,पठन-पाठन में रूचि व  साहित्य
 के क्षेत्र में प्रभावी दखल रखते हैं.)

सुप्रभात मित्रों,
जब कभी कापी-पेस्ट और फोटो फॉरवर्ड के इस व्हाटसेपिया बीहड़ में इस प्रकार की गंभीर चर्चा पढ़ने को मिलती है तो लगता है कि ग्रुप बनाने का प्रयोजन सफल हुआ।
हमारे यहां सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था वो पतंग है जिसकी डोर निरंतर उलझती जा रही है। विकल्प यह भी है कि डोर काट कर पतंग आजाद कर दी जाये और यह भी, कि डोर सुलझायी जाये। पतंग उड़ायी भी पतंगबाज ने और डोर उलझायी भी पतंगबाज ने। इसमें पतंग का क्या दोष है? अब डोर सुलझाने के झंझट में ना पड़ के, पतंगबाज डोर काट के अपनी जवाबदेही से बचना चाहता है।
हालांकि देश में प्रारंभिक शिक्षा की कमोबेश एक सी स्थिति है,  उसे बेहतर समझने के लिए अपने उत्तराखंड का उदाहरण लेना उचित होगा। बल्कि वहां भी पहले प्रारंभिक शिक्षा की बात करते हैं।
उत्तराखंड में लगभग 15300 प्राइमरी स्कूलों में 1040000 विद्यार्थी व 22000 अध्यापक हैं। कहने को यह बहुत बड़ी संख्या है लेकिन देखिए अध्यापकों से उस काम को छोड़कर, जो उनका मुख्य काम है, क्या-क्या कराया जाता है। दूरस्थ क्षेत्रों तक सरकारी स्कूलों की पहुंच होने के कारण साल भर अध्यापकों को उन कामों में उलझा कर रखा जाता है जो उनके हैं ही नहीं। बूथ लेवल आफिसर (BLO) होने के बावजूद उनसे प्रत्येक चुनाव से पहले 2-3 माह तक BLO का काम लिया जाता है। चुनाव में अधिकांश पोलिंग बूथ स्कूलों में ही बनाये जाते हैं। पल्स पोलियो अभियान में ड्यूटी लगाई जाती है। हर दूसरे दिन कोई न कोई दिवस मनाया जाता है। कोई भी जागरूकता अभियान हो तो उसमें सहभागिता अनिवार्य होती है। आपको ताज्जुब होगा कि उत्तरकाशी में तो अध्यापकों की ड्यूटी वनाग्नि रोकने में लगायी गयी (एक दूसरे राज्य में सामूहिक विवाह के कार्यक्रम में ब्राइडल मेकअप में लगायी गयी)। इसके अतिरिक्त मिड डे मील (MDM) में अध्यापकों का उलझे रहना सर्वविदित है। बच्चों को गणित पढ़ाने की जगह अध्यापक  MDM की गणित में उलझे रहते हैं। राशन डीलर के यहां चक्कर लगाने का काम भी इसी से जुड़ा है। अब आप बताइए बच्चों को पढ़ने और अध्यापकों को पढ़ाने के लिए कितना समय बचता होगा? जो कमी शेष थी उसे इस सरकारी आदेश ने पूरा कर दिया कि राइट-टू-एजूकेशन(RTE) के अन्तर्गत 8वीं तक के बच्चों को फेल नहीं करना है। अब आप ही बताइए, 8वीं तक जिस बच्चे की शिक्षा की नीव कमजोर रहेगी, वो आगे 10वीं और 12वीं में कैसे नंबर लायेगा? क्या ऐसे में स्कूलों को शैक्षिक प्रदर्शन पर आंकना उचित होगा? क्या कभी सरकार ने सोचा है कि MDM के  सहारे मात्र बच्चों की उपस्थिति बढ़ाने और RTE में फेल न करने की मंशा के चलते हम सिर्फ बेरोजगारों की फौज खड़ी करने का सामान कर रहे हैं?
पिछले 5 साल में सरकारी स्कूलों में 1,46,000 बच्चे कम हुए हैं और लगभग इतने ही प्राइवेट स्कूलों में बढ़े हैं। क्यों? शायद सरकार से पहले अभिभावक समझ गये कि उनका लक्ष्य क्या है। बच्चों को उचित शिक्षा देना या  शिक्षा देने का दिखावा करना।
उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों की स्थिति और भी बदतर है। ऐसे कई विद्यालय हैं जहां मुख्य विषय जैसे गणित, विज्ञान और अंग्रेजी के अध्यापक ही नहीं हैं। बच्चे पढ़ेंगे कैसे? अध्यापकों को किसने नियुक्त करना है? अध्यापकों की नियुक्ति तो ट्रांसफर उद्योग (उद्योग कहना ही उचित होगा) की भेंट चढ़ चुकी है!
शायद पतंगबाज की मंशा कभी शिक्षा की पतंग ऊंचा उड़ाने की थी ही नहीं।
 सिर्फ पतंग उड़ाने का दिखावा करना था। और अब वही डोर काटने पर तुला है………..


     ………..तनुज पंत ‘अनंत ‘

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14 thoughts on “सरकारी शिक्षा की बदहाल स्थिति : जिम्मेदार कौन?”

    • सभी को गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा प्रदान करना एवं उसका प्रबंध करना सरकार का उत्तरदायित्व है। सुशिक्षित व्यक्ति एक मजबूत लोकतंत्र की नींव है। अतः यह सभी का दायित्व है कि शिक्षा को गुणवत्ता पूर्ण एवं सर्व सुलभ बनाया जाय। इस हेतु संसाधनों का समुचित प्रबंध एवं व्यवहारिक नीति बनाकर लागू किया जाना अत्यंत आवश्यक है।

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  1. बहुत अच्छा लिखा परन्तु और अधिक अच्छा होगा यदि इसे प्रदेश से बाहर अन्य प्रदेशों की स्थिति का भी समावेश करते हुये और व्यापक बनाया जाये।

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  2. बहुत अच्छी तरह से आपने वस्तुस्थिति स्ष्ट कर दी है मैं आपकी प्रत्येक बात से 100% सहमत हूॅ क्योंकि उत्तराखण्ड की शिक्षा व्यवस्था में सेवा के उपरान्त में दिल्ली में सेवा दे रहा हूॅ सरकार की मंशा ही नहीं है देश शैक्षिक दृष्टि से मजबूत बने इन्हें शिक्षा को कमजोर करना है ताकि केवल मत देते समय हस्ताक्षर कर सकें यह आम जनता को शिक्षा व्यवस्था से बाहर करना चाहते हैं शिक्षा में किये गये निवेश का लाभ 10-15-20 साल में आएगा जबकि राजनेताओं को वोट हर 5 साल में चाहिए इसमें पूर्व में अवसंरचना (Infrastructure)में लगातार निवेश और निवेश की जरुरत है नई तकनीकी में निवेश की जरुरत है लेकिन राजनैतिक नेताओं को 50-70% कमीशन चाहिए तो क्या हाल होगा इसी अवैध पैसे से ये पतंगबाज पतंग उलझा रहे हैं प्राईवेट स्कूल,अकादमिक कालेज,मेडीकल कालेज,इंजीनियरिंग कालेज, प्रशिक्षण संस्थान व कालेज खोल रहे है खोलना अच्छी बात है लेकिन जो मेहनत से आता है उसे ये कालेज प्रवेश नहीं देते बल्कि उन्हे देते हैं जो कम मेहनती हैं उनसे मनचाहा पैसा लिया जाता है कम मेहनत के बहाने और आम आदमी को यहां भी दूर कर दिया जाता है फिर खेल शुरु होता है तथाकथित रोजगार जो सारे चोर-चोर मौसरे भाई की नीति पर अपने प्राईवेट मेडीकल कालेज, इंजीनियरिंग कालेज या कम्नी में इन्हें काम दे दिया जाता है ताकि रोजगार के नाम पर दुकानदारी चलती रहे फिर शुरु होता है मेडीकल हस्पतालों में मरीज को लूटने का काम कभी मरे आदमी को जिंदा बताकर कई दिन वेंटिलेटर पर रखकर ठगने का काम या मानव अंगों की तस्करी बचाने के लिए राजनीति में होने से राजनीतिक प्रश्रय। इस पूरे खेल में आम आदमी अपने आप को ठगा सा महसूस कर रहा है उसका जीवन बर्बाद कर दिया जाता है आम आदमी सत्ता व राजनीतिक रैलियों में तो भाग लेता है यहां कोई आवाज नहीं उठाता यही हमारे समाज व देश की बदहाली का कारण है हालांकि इसमें कम लोग आवाज उठाते भी हैं तो उनको शान्त होने पर मजबूर कर दिया जाता है इसलिए 'संघे शक्ति कलियुगे' को ध्यान में रखकर संख्या बल इतना हो कि कुचला न जा सके तभी जीत संभव है। भारत के विश्वगुरु बन सकने व भारत के भविष्य की शुभेच्छा में।
    आपने विचार अभिव्यक्ति का अवसर दिया।
    धन्यवाद्!

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  3. धन्यवाद प्रेम जी। दरअसल यह चर्चा हमारे बैंक के एक ग्रुप में तब शुरू हुई जब किसी ने केन्द्र सरकार में चल रहे स्कूलों के निजीकरण पर विचार करने संबंधी अखबार की कतरन पोस्ट की। मेरी पत्नी भी सरकारी स्कूल में शिक्षिका हैं अतः शिक्षा विभाग की कार्यप्रणाली निकट से देखने का अवसर मिला। आम जनमानस में यही भ्रांति है कि शिक्षा के स्तर में गिरावट के लिए शिक्षक जिम्मेदार हैं, जबकि स्थिति इससे इतर है। अपनी टिप्पणी में मैंने मात्र वास्तविकता उकेरने का प्रयास किया है। झलकियां

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  4. हमारा विद्यालय CBSE बोर्ड दिल्ली सरकार का है दिल्ली कुछ हद तक खर्च किया गया है हमें भी मेहनत करनी पड़ती है लेकिन एक खुशी मिलती है जिन्हें नीजि स्कूल शिक्षा देने से कतराते हैं उनको हम शिक्षित कर रहे हैं हमारा स्कूल सरकारी होते हुए 2012-13 से 100% रिजल्ट दे रहा है इस साल हमारा परीक्षाफल प्राईवेट से 2-2.5 % अधिक है व दिल्ली के 900 स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण (70% से अधिक वाले बच्चे)में प्रथम स्थान पर है मैंने उत्तराखण्ड के ग्रामीण क्षेत्र से पढ़ा है तब हमारे प्राथमिक विद्यालय में 5-6 अध्यापक हुआ करते थे विकास के साथ घटते चले गये। मैंने उत्तराखण्ड के प्राथमिक व उच्च प्राथमिक के दूरस्थ विद्यालयों में सेवा भी की है शिक्षक अपने कार्य के प्रति समर्पित होता है बशर्ते उसे उसका कार्य बिना गैर जरुरी हस्तक्षेप के करने दिया जाय।

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  5. आदरणीय प्रेम जी, आपकी बात बिल्कुल सही है। शिक्षक समर्पित है,लेकिन उसे अनुकूल वातावरण तथा स्वायत्तता नहीं मिलती।और फिर सारी नाकामी का ठीकरा उसके सर पर फोड़ दिया जाता है। गंभीर विश्लेषण के लिए साधुवाद।

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  6. शिक्षा मद सरकारों को बोझ लगता है क्योंकि इसमें केवल इन्वेस्ट होता है, और सरकारों को कोई प्रत्यक्ष लाभ नही होता है(प्रत्यक्ष लाभ आप समझ ही गए होंगे), इसके उलट पढ़ा लिखा व्यक्ति सरकार से प्रश्न पूछने लगता है जो कि किसी भी सरकार को पसंद नही आता।

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