गढ़वाल की दिवंगत विभूतियाँ । सर्जन हरिकृष्ण वैष्णव

प्रसिद्ध सर्जन डॉ० हरि कृष्ण वैष्णव

भावसंचय की ओर से हम गढ़वाल की उन दिवंगत विभूतियों पर एक लेखमाला आरंभ करने जा रहे हैं, जो इतिहास के पन्नों पर कहीं न कहीं भुलाए जा रहे हैं, जबकि उनका योगदान अविस्मरणीय है। इस लेखमाला के लेखक हैं वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. नंद किशोर ढौंडियाल ‘अरूण’…

उत्तराखण्ड की इस पवित्र भूमि में जहाँ धन की देवी का चिर निवास है वहाँ विद्या की देवी सरस्वती भी इस धरती के लिए असंख्य वरदान लेकर आती है। इसी पवित्र संगमस्थली पर बसे नन्दप्रयाग की यहाँ के तीन परिवारों से जो प्रसिद्धि प्रदान की वह प्रसिद्धि अलकनन्दा और नन्दाकिनी के संगम ने भी नहीं दी। बहुगुणा, नौटियाल और वैष्णव ये तीनों ही परिवार एक लम्बी अवधि से नन्दप्रयाग की प्रसिद्धि के पर्याय बने हुए हैं। इन तीनों ही परिवारों ने इस धरती की श्रीवृद्धि के लिए समय-समय पर कई ऐसे अनेक मानव रत्नों को जन्म दिया जिनकी ज्ञान ज्योति गढ़वाल हिमालय की कन्दराओं से निकलकर विश्वव्यापी हो गयी। इन्हीं मानव रत्नों में वैष्णव परिवार कुल दीपक डॉ० हरि प्रसाद वैष्णव भी एक थे जिन्होंने अपने विद्या वैभव से सारे संसार को चमत्कृत कर चिकित्सा के क्षेत्र में विशेष योगदान दिया।

परिचय

डॉ0 हरिकृष्ण या हरि वैष्णव का जन्म सन् 1918 में चमोली के नन्दप्रयाग निवासी श्री गोपाल प्रसाद वैष्णव तथा श्रीमती दीपा देवी वैष्णव के घर हुआ। शैशव अवस्था में ही गुरु गम्भीर्य से आत्मसात् करने वाले नन्दाकिनी और अलकनन्दा के इस भूमि पुत्र ने जब बाल्यकाल में प्रवेश किया तो माता-पिता को इस विलक्षण बालक की अद्भुत मेधा शक्ति ने अपनी ओर आकर्षित कर लिया जिससे इनके माता-पिता इनकी शिक्षा दीक्षा के लिए चिन्तित हो गये लेकिन जैसे विद्वानों का

कथन है कि होनी को दस रास्ते मिल जाते हैं। श्री गोपालप्रसाद वैष्णव ने भी अपने इस मेधावी पुत्र की शिक्षा दीक्षा के कई साधन और माध्यम ढूंढ निकाले। पूर्व तो माता-पिता ने इन्हें प्राथमिक शिक्षा के लिए स्थानीय विद्यालय में भेजा जहाँ इन्होंने अल्पकाल में ही प्राथमिक कक्षाएं अच्छे अंक और श्रेणी प्राप्त कर उत्तीर्ण कर ली। इसके बाद इन्होंने सातवीं तक की शिक्षा कर्णप्रयाग के राजकीय मिडिल स्कूल से • प्राप्त की। उन दिनों मिडिल कक्षा 7 तक ही होती थी। सातवीं की कक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण करने के पश्चात् ये देहरादून चले गये जहाँ से इन्होंने हाईस्कूल तथा इण्टर की परीक्षाएं प्रथम श्रेणी लेकर उत्तीर्ण की। इसके पश्चात् इन्होंने उच्चशिक्षा के बजाय चिकित्सा के क्षेत्र में अध्ययन करने का मन बनाया और सन् 1939 में • एम0बी0बी0एस0 की प्रवेश परीक्षा दी। जिसमें वे सफल हुए और इन्हें लखनऊ के किंग जार्ज मेडिकल कॉलेज में प्रवेश मिल गया, जहाँ से सन् 1944 में इन्होंने ससम्मान इस परीक्षा को उत्तीर्ण कर डॉक्टर की उपाधि प्राप्त की और इसी वर्ष इन्होंने अल्मोड़ा के प्रसिद्ध कल्चरल सेंटर उदयशंकर सांस्कृतिक केन्द्र से नृत्यकला का प्रशिक्षण लिया।

सेना में सेवा और उच्च उपाधियाँ

सन् 1944 में एम0बी0बी0एस0 कर लेने के पश्चात् डॉक्टर के रूप में इनका चयन सेना में हो गया, जहाँ रहकर इन्होंने देश की सीमाओं में तैनात सैनिकों को अपने चिकित्सा अनुभव का लाभ दिया। सन् 1947 में जैसे ही भारत स्वतंत्र हुआ, देश के प्रतिभाशाली नवयुवकों के लिए देश विदेश में अच्छी और लाभकारी सेवाओं के रास्ते खुल गये। युवा सैन्य अफसर डॉ0 हरि वैष्णव के मन में भी चिकित्सा के क्षेत्र में विशेष अनुसंधान करने की अदम्य लालसा थी इसलिए इन्होंने सेना की चार वर्षीय सेवा के पश्चात् उससे त्याग पत्र दे दिया और वे स्वतंत्र होकर चिकित्सा के क्षेत्र में विशेष कार्य करने लगे। ये चाहते थे कि मैं चिकित्सा के क्षेत्र की उच्च से उच्च उपाधि प्राप्त करूं इसलिए इन्होंने अपने अध्ययन कार्य में निरंतरता बनाये रखी जिसके फलस्वरूप इन्होंने सन् 1953 में एडनबर्ग विश्वविद्यालय से एम0आई0सी0पी0 की उपाधि और सन् 1972 एफ0आर0सी0पी0 की उपाधि प्राप्त की। इसी वर्ष इन्हें नेशनल एकेडेमी ऑफ मेडिकल साईन्स की ओर से एफ0ए0एम0एस0 की उपाधि भी प्राप्त हुई।

चिकित्सा क्षेत्र की उपलब्धियां एवं समाज सेवा

डॉ0 हरिकृष्ण वैष्णव एक प्रतिभाशाली चिकित्सक थे। ये जिस किसी भी व्याधिग्रस्त व्यक्ति पर हाथ लगाते थे, वह इनकी औषधियों से कम मधुर व्यवहार और सहृदयता से स्वस्थ हो जाता था। इंग्लैण्ड में शिक्षा लेने के बाद भी पूर्व

गढ़वाली और बाद में भारतीय बने रहे, इन्हें अभिमान तो छू भी नहीं सका। इंग्लैण्ड में चार वर्ष तक शिक्षा प्राप्ति करने के पश्चात् जब ये भारत लौटे तो उसी समय क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज बैंगलूर में नियुक्ति मिल गई, जहाँ इन्होंने शिक्षण कार्य के साथ-साथ मधुमेह जैसे रोग के निदान के लिए कई महत्वपूर्ण शोध किये। चार वर्ष तक इस कॉलेज में सेवा करने के पश्चात् सन् 1960 में ये दिल्ली स्थित विलिंगटन मेडिकल हॉस्पिटल में प्रोफेसर के पद पर कार्य करने लगे। इसी दौरान ये लेडी हर्डिंग अस्पताल में भी अपनी सेवा देने लगे थे। डॉ0 हरि वैष्णव की लोकप्रियता और कार्य कुशलता से प्रभावित होकर पूर्व तो मौलाना आजाद मेडिकल अस्पताल के प्रबन्ध तंत्र ने इन्हें अपने यहाँ प्रोफेसर के पद पर नियुक्त किया और बाद में डॉ0 वैष्णव ने पंत मेमोरियल अस्पताल को अपनी सेवाएं प्रदान की। ये अपने सेवाकाल में इस अस्पताल के विभागाध्यक्ष भी रहे। डॉ० वैष्णव अपनी कार्य कुशलता और दक्षता के कारण देश की राजधानी दिल्ली के चिकित्सक विशेषज्ञों के भी प्रेरणा स्रोत रहे। एक लम्बी अवधि तक ये मूलचन्द एण्ड खैराती लाल हॉस्पिटल के सीनियर फिजिशियन तथा नार्दन रेलवे हॉस्पिटल के सीनियर फिजीशियन भी रहे।

डॉ० वैष्णव जिस समय इंग्लैण्ड से लौटकर भारत आये दिल्ली आकर इनकी भेंट इरविन अस्पताल की स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ० सरला से हो गई। डॉ० सरला मूल रूप से सिन्धी महिला थी लेकिन डॉ० वैष्णव नई रोशनी में जन्म लेने वाले व्यक्ति थे इसलिए इन्होंने डॉ० सरला से विवाह करने की ठान ली। जब इन्होंने अपना यह मंतव्य अपनी माता को बताया तो माता श्रीमती दीपा देवी ने इन्हें डॉ0 सरला से विवाह करने की सहर्ष अनुमति और आशीर्वाद दे दिया।

डॉ० हरिकृष्ण वैष्णव मधुमेह के विशेषज्ञ थे। मधुमेह जैसी असाध्य बीमारी को साधने के लिए चिकित्सक किन-किन औषधियों से इस रोग के रोगी की चिकित्सा करें, इस रोग से मानव समाज को कैसे बचाये? इसके लिए ये हमेशा शोध करते रहे। डॉ० वैष्णव ने अपने जीवन काल में लगभग 300 शोध पत्रों का लेखन और प्रकाशन किया। इनमें अधिकतर शोधपत्र मधुमेह, गठिया, पथरी और हड्डियों के रोग से संदर्भित हैं। मधुमेह रोग निवारण के लिए किये गये इनके अभूतपूर्व योगदान के लिए विश्व स्तरीय एक चिकित्सकीय संस्था द्वारा इन्हें डॉक्टरेट पदक से विभूषित किया गया जिससे इनको विश्वस्तर पर बहुत सम्मान मिला।

ठेठ गढ़वालीपन

डॉ0 हरिकृष्ण वैष्णव को गढ़वाल और गढ़वालियों से अत्यधिक प्रेम था। इसीलिए उनके घर, कार्यालय तथा अस्पताल में गढ़वालियों को पर्याप्त सम्मान मिलता था। वे गढ़वाली व्यक्ति से घर या घर के बाहर गढ़वाली में ही बातें करते थे जबकि इनकी धर्मपत्नी गढ़वाल के बाहर की थी। प्रायः देखा जाता है कि ऐसे

वातावरण में व्यक्ति कुछ बदल सा जाता है लेकिन डॉ० वैष्णव ने अपनी धर्मपत्नी डॉ० सरला को गढ़वालीपन में ढाला। डॉ० वैष्णव का उत्तराखण्ड से इतना प्रेम था कि उन्होंने अपनी सुपुत्री का नाम उत्तरा रख दिया था। अपनी माता श्रीमती दीपा वैष्णव को तो ये किसी देवी से कम नहीं मानते थे इसीलिए उन्होंने अपनी माता जी की स्मृति को चिरस्थायी रखने हेतु अपने पुत्र का नाम दीपक रखा। इस तरह जननी और जन्मभूमि से असीम प्रेम करने वाला यह गढ़ पुत्र प्रत्येक वर्ष गढ़वाल आता था। पर्वतीय संस्कृति से आपार प्रेम होने के कारण ये गौचर मेले में आना कभी नहीं भूलते थे। गौचर मेले को और आकर्षक तथा लोकप्रिय बनाने के लिए इन्होंने मेला समिति को एक चल वैजयन्ती प्रदान की थी जिसे वे प्रत्येक वर्ष विजयी दल को प्रदान करते थे।

डॉ0 हरिकृष्ण वैष्णव सन् 1980 में अन्तिम बार गौचर मेले में आये थे। इस अवसर पर वे मेला समिति के सदस्यों से तो आत्मीयता से मिले ही अपने प्रवास के इन चार दिनों में ये गोपेश्वर, नन्दप्रयाग, गौचर, श्रीनगर आदि स्थानों में भी गये जहाँ इनके मित्रजनों ने इनका सादर स्वागत किया। तब वे शायद यह नहीं जानते थे कि उनकी यात्रा मातृभूमि की अन्तिम यात्रा है। इसके पश्चात् दिल्ली लौटे और दिल्ली लौटने के कुछ दिन बाद इन्हें नागपुर में होने वाले उस अखिल भारतीय चिकित्सा सम्मेलन का निमंत्रण कार्ड मिला जिसमें देश विदेश के वरिष्ठ डॉक्टर और सर्जन आने वाले थे।

नागपुर सम्मेलन और अन्तिम यात्रा

डॉ० हरिकृष्ण वैष्णव की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनकी अपनी निजी जीवन की चाहे कोई व्यस्तता रही हो उन्हें जब कभी देश विदेश में होने वाली किसी भी संगोष्ठी, सम्मेलन या समारोह में भाग लेने का आमंत्रण पत्र मिलता था तो वे अपने समस्त व्यक्तिगत कार्यों को छोड़कर उन समारोह में अवश्य सम्मिलित होते थे। एक शोधक के साथ-साथ अंग्रेजी, हिन्दी और गढ़वाली के अच्छे वक्ता होने के कारण ये अपनी बात को बड़े सरस और आकर्षक ढंग से श्रोताओं तथा उत्सुक विद्यार्थियों के समक्ष रखते थे। यही कारण था कि विश्वभर में होने व सम्मेलनों में कोई भी उनकी अनदेखी नहीं कर सकता था।

जनवरी सन् 1981 में महाराष्ट्र के नागपुर शहर में आयोजकों द्वारा अखिल भारतीय चिकित्सा सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस सम्मेलन में डॉ0 वैष्णव को भी आमंत्रित किया गया। यह सम्मेलन चार दिनों तक चलना था इसलिए डॉ0 हरिकृष्ण वैष्णव 14 जनवरी को दिल्ली से नागपुर पहुँच गये। नागपुर के इस सम्मेलन में विश्वभर के सैकड़ों वरिष्ठ और अनुभवी डाक्टर पहुँचे। डॉ० वैष्णव से कुछ नया जानने के लिए वे पहले ही दिन से उन्हें घेरने लगे थे। वे इनसे अनेक प्रकार के प्रश्न पूछते और ये उनका सन्तुष्टि से उत्तर देते। इस तरह डॉ० वैष्णव एक तरह से उस सम्मेलन के केन्द्र बन गये। तीन दिनों तक सम्मेलन निर्बाध रूप से चलता रहा। 18 जनवरी 1981 को ये स्वस्थ और सानंद थे लेकिन 18 जनवरी और 19 जनवरी को मध्य रात्रि में लगभग डेढ़ बजे अचानक इनकी हृदय गति रुक गई और ये इस संसार से विदा लेकर सूक्ष्म लोक में पहुँच गये। इनकी हृदय गति रुकने पर कई हृदय रोग विशेषज्ञ उनको बचा नहीं पाये जिनसे वे चंद दिनों से हृदय रोग सम्बन्धी प्रश्न पूछ रहे थे। इनके इस आकस्मिक निधन से चिकित्सा जगत में तो सन्नाटा ही छा गया। वास्तव में ईश्वर की यह कैसी विडम्बना है जो डॉक्टर सब को स्वास्थ्य और जीवन का वरदान देते हैं उन्हीं डाक्टरों के मध्य से यह डॉक्टर अकस्मात् ऐसे चला गया जैसे कि वह संसार को यह उपदेश देना चाहता था कि ‘मृत्यु सत्य है’। उपचार शरीर का होता है, आत्मा का नहीं, आत्मा का वास्तविक उपचार शरीर त्याग है। डॉ० हरिकृष्ण वैष्णव के इस आकस्मिक निधन से गढ़वाल का जनमानस अन्दर से आहत हुआ तो दिल्ली के प्रवासी उत्तराखण्डियों ने अपना एक हितैषी खो दिया।

डॉ० वैष्णव के पश्चात् उनके पुत्र डॉ० दीपक वैष्णव अपने पिता द्वारा स्थापित की गई परम्पराओं का निर्वहन कर रहे हैं। डॉ० वैष्णव के कनिष्ठ भ्राता गढ़वाल के वयोवृद्ध पत्रकार और समाज सेवी श्री राधाकृष्ण वैष्णव आज भी समाज सेवा में लगे हुए हैं। इनके साथ उनका सारा परिवार डॉ० वैष्णव के आदर्शों पर चलकर बरबस समाज को उनकी याद दिलाता रहता है।

लेखक के बारे में :

प्रो. नंद किशोर ढौंडियाल ‘अरूण’ , डी. लिट. वरिष्ठ साहित्यकार हैं , जिनकी सौ से भी अधिक पुस्तकें साहित्य की अनेक विधाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं ।

संपर्क :

प्रोफेसर नन्दकिशोर ढौंडियाल ‘अरुण’

डी.लिट्.

‘अरूणोदय’

गढ़वाली चौक, ध्रुवपुर कोटद्वार पौड़ी गढ़वाल

उत्तराखंड ( भारत)

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