भावसंचय पर गढ़वाल की उन दिवंगत विभूतियों पर एक लेखमाला जारी है , जो इतिहास के पन्नों पर कहीं न कहीं भुलाए जा रहे हैं, जबकि उनका योगदान अविस्मरणीय है। इस लेखमाला के लेखक हैं वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. नंद किशोर ढौंडियाल ‘अरूण’। इस कड़ी में जानते हैं क्रांतिकारी पत्रकार हरिराम मिश्र ‘चंचल’ Hariram mishra chanchalके बारे में जो अक्तूबर 1980 से लापता हैं….
हरिराम मिश्र चंचल का परिचय
श्री हरिराम मिश्र ‘चंचल’ का जन्म 20 अक्टूबर सन् 1918 में पौड़ी जनपद के दुगड्डा स्थित सरुड़ा नामक ग्राम में श्री धनीराम शर्मा ‘मिश्र’ की प्रथम धर्मपत्नी श्रीमती केदारी देवी के गर्भ से हुआ था। इनकी माता श्रीमती केदारी देवी पौड़ी जनपद की पट्टी उदयपुर स्थित ग्राम ग्वाड़ी की थी। श्रीमती केदारी देवी के पिता रायबहादुर रमादत्त रतूड़ी टिहरी राज्य में वन विभाग के कंजर्वेटर थे। श्रीमती केदारी देवी के अतिरिक्त श्री धनीराम शर्मा ‘मिश्र की एक और पत्नी भी थी, जिसका
नाम बांसुली देवी था। श्रीमती बांसुली देवी श्री प्रहलाद राम बहुखण्डी डिप्टी कलेक्टर की भानजी थी। इनसे श्री धनीराम मिश्र का एक पुत्र था जिसे दाताराम मिश्र कहते थे लेकिन श्री दाताराम मिश्र बहुत दिनों तक जीवित नहीं रहे और युवावस्था में ही उनका देहावसान हो गया था।
अपने जीवनकाल में चार पुत्रों के पिता श्री धनीराम मिश्र ने अपने सबसे कनिष्ठ पुत्र श्री हरिराम मिश्र ‘चंचल’ को बड़े लाड़ प्यार से पालने का स्वप्न संजोया था लेकिन जैसे ही शिशु हरिराम एक वर्ष के हुए तो इनके पिता श्री धनीराम मिश्र की अचानक मृत्यु हो गयी और इनके लालन पालन का सारा भार इनकी माता केदारी देवी तथा बड़े भाई श्री कृपाराम मिश्र ‘मनहर’ पर आ गया। जब बालक हरिराम विद्यालय जाने योग्य हुए तो माता ने इनको कोटद्वार की प्राथमिक पाठशाला सुखरी में प्रवेश दिला दिया और यहाँ से प्राथमिक कक्षाएं उत्तीर्ण करने के पश्चात् श्री मिश्र को पूर्व जूनियर तथा बाद में हाईस्कूल की शिक्षा नजीबाबाद में सम्पन्न करवायी गई। लेकिन आगे की शिक्षा इन्होंने कहाँ से प्राप्त की, इस संबंध में किसी को भी ठीक-ठीक पता नहीं है। सम्भवतः ये अपनी आगे की शिक्षा प्राप्ति के दौरान ही स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और यहीं से इनका राजनैतिक जीवन प्रारम्भ हुआ।
स्वतंत्रता आंदोलन में
श्री हरिराम मिश्र ‘चंचल’ पर अपने अग्रज श्री कृपाराम मिश्र ‘मनहर’ के हृदय पर अंकित स्वदेश प्रेम का बड़ा प्रभाव पड़ा जैसे कि पूर्व भी निवेदन किया जा चुका है कि श्री ‘मनहर’ पूर्व में अपने पिता की भाँति हिन्दू धर्म के प्रबल समर्थक होने के कारण हिन्दू महासभा से जुड़ गये थे लेकिन जैसे-जैसे सत्य, अहिंसा, बन्धुत्व, अपरिग्रह, निष्काम कर्मयोग और प्रेम के अवतार महात्मा गांधी राष्ट्रीय राजनीति के चित्रपट पर उभरने लगे, देश के जो असंख्य नवयुवक उनकी विचारधारा में बहे और उनके बताये हुए मार्ग पर चलने के लिए कटिबद्ध होने लगे। श्री कृपाराम मिश्र ‘मनहर’ भी उनमें से एक थे इसीलिए गढ़वाल में कांग्रेस के बीज बोने में इनका सबसे बड़ा हाथ रहा और इन्होंने पंडित मोतीलाल नेहरू की भाँति अपना ठाठ-बाट वाला पैतृक भवन कांग्रेस के कार्यालय के लिए निःशुल्क प्रदान कर दिया। युवक हरिराम मिश्र ‘चंचल’ के हृदय पर इनके इस त्याग की गहरी छाप पड़ी और इन्होंने भी लक्ष्मण की भाँति अपने अग्रज श्री कृपाराम मिश्र ‘मनहर’ के पदचिह्नों पर चलते हुए देश को गुलामी से मुक्त करने के लिए त्याग और संघर्ष का व्रत ले लिया। ये इसी संकल्प के कारण अपने अग्रज श्री जगतराम मिश्र ‘अकिंचन’ की भाँति पूर्ण शिक्षित नहीं हो पाये और समय से पूर्व ही कांग्रेस के आंदोलनों में जेल की हवा खाने लगे। स्वतंत्रता आंदोलन में इन्होंने अपना सर्वस्वन्यौछावर कर दिया। सर्वप्रथम इन्होंने खोयी अपनी शिक्षा की वह गति जिसके बल पर मानव अपने जीवन में अनेक उच्च पदों का भोग करता हुआ अंत में संसार सागर के पार हो जाता है। दूसरा खोया इन्होंने अपना वह समय जिसे ये जेल की सींखचों के पीछे बिता चुके थे। तीसरा खोया इन्होंने अपना पारिवारिक सुख-चैन, जो मानव को जीवन की वास्तविक आनन्दानुभूति कराता है। चौथी खोयी इन्होंने अपनी वह भू-सम्पत्ति जिसे बेचकर ये आजादी के दीवानों के लिए धन और भोजन, दोनों ही जुटाते थे। पाँचवीं खोयी इन्होंने अपनी युवा अवस्था जिसे खोकर ये असमय ही बूढ़े लगने लगे थे।
जेल में रहकर इन्होंने अनेक असीम यातनाएं सही। इन्हीं जेलों में इनका साथ रहा, डॉ० भक्तदर्शन, श्री बलदेव सिंह आर्य, स्वर्गीय अजीत प्रसाद जैन, श्री दीनदयाल शास्त्री, श्री प्रताप सिंह नेगी आदि प्रतिष्ठित स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का । इसीलिए उनकी विचारधारा के साथ-साथ श्री हरिराम मिश्र ‘चंचल’ ने उन्हीं जैसा सादा जीवन उच्च विचार का भी अनुसरण किया। भारत के स्वतंत्र होते ही जैसे ‘चंचल’ जी जेल से बाहर आये, उस समय तक उनका सब कुछ लुट चुका था। यह भी पढ़ें गढ़वाल की दिवंगत विभूतियाँ । सर्जन हरिकृष्ण वैष्णव
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात
भारत आजाद हुआ और भारतीय कांग्रेस के नेता कारागारों से बाहर आये। सभी को योग्यतानुसार पद मान और सम्मान मिले। किसी को जमीन तो किसी को मोटर लाइसेंस, किसी को दुकान तो किसी को उसकी योग्यतानुसार सरकारी सेवा । परन्तु भारत की आजादी के बाद श्री हरिराम मिश्र ‘चंचल’ के पास कुछ भी नहीं बचा। इससे पूर्व इनके पास जो कुछ भी था, ये उसे देश की स्वतंत्रता के पुनीत यज्ञ में हवन कर चुके थे क्योंकि अब ये भूमिहीन थे। इनके पास इनके पूर्वजों के द्वारा अर्जित भूमि भी नहीं बची थी।
समय व्यतीत होता गया और इस संघर्ष पुरुष ने इसी समय के साथ अपना संघर्ष आगे बढ़ाया। राष्ट्रनायक पंडित नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में जबकि स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री गृहमंत्री थे, श्री हरिराम मिश्र ‘चंचल’ गढ़वाल के सैकड़ों भूमिहीनों का एक बहुत बड़ा दल लेकर पैदल ही गढ़वाल से दिल्ली की ओर निकल पड़े। इनके इस जत्थे में वे सभी लोग थे जो गरीबी की रेखा से नीचे आते थे। दिल्ली पहुँचकर इन्होंने अपनी बात को दिल्ली दरबार के समक्ष रखी लेकिन उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई।
सन् 1966 के पश्चात् जैसे ही श्रीमती इन्दिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी, देश की आजादी की 25 वीं वर्षगांठ पर उन्होंने देश के उन सभी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के समादर के लिए पेंशन की व्यवस्था करवायी जो स्वतंत्रता के आंदोलन में अपनासर्वस्व न्यौछावर कर चुके थे। सन् 1972 में बसंत पंचमी के अवसर पर केन्द्र और राज्य सरकार ने मिलकर उन्हें दो सौ रुपये मासिक पेंशन तथा ताम्रपत्र देकर सम्मानित किया।
श्री हरिराम मिश्र ‘चंचल’ भी इनमें से एक थे। यह पेंशन उन्हें डूबते को तिनके का सहारा जैसे लगी। इसी पेंशन प्राप्ति का प्रभाव था इन्होंने अपना पुराना अखबार ‘हिमालय की ललकार’ दोबारा निकालना प्रारम्भ किया। इसी अखबार के माध्यम से श्री ‘चंचल’ मोटर मजदूरों की समस्याओं को उठाने लगे। इनकी इसी जागरूकता के कारण मोटर मजदूर यूनियन ने इन्हें अपना नेता चुन लिया और अब ये कोटद्वार के अपने अखबार के ऑफिस में बैठकर मजदूरों की समस्याएं निपटाने लगे। इनके इसी कार्यालय में मोटर मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए धरने प्रदर्शन तथा हड़तालों की योजनाएं बनती और लोकतंत्र के द्वारा निर्धारित इन गांधीवादी तरीकों से ये लोग अपनी माँगों को शासन-प्रशासन के समक्ष रखते थे।
सन् 1977 की बात थी। कोटद्वार से एक गरीब मोटर मजदूर की सुन्दर पत्नी एकाएक गायब हो गयी। इस महिला की गुमशुदगी पर सारे मोटर मजदूर इकट्ठा हुए और उन्होंने श्री हरिराम मिश्र ‘चंचल’ के नेतृत्व में शासन से उक्त महिला का पता लगाने को कहा लेकिन इस शर्मनाक घटना के पीछे कुछ इज्जतदार पूंजीपति और भ्रष्ट नौकरशाह भी जुड़े थे जिसके कारण इस की निष्पक्ष जांच नहीं हो पा रही थी। श्री हरिराम मिश्र ‘चंचल’ ने अपने समाचार पत्र के माध्यम से इस घटना से जुड़े लोगों की घोर भर्त्सना की उस समय गढ़वाल के जिलाधीश श्री जार्ज जोसफ थे। श्री हरिराम मिश्र ‘चंचल’ ने जब यह बात उनके समक्ष रखी तो पूर्व तो उन्होंने इस घटना की जाँच और ड्राइवर पत्नी गोदाम्बरी का पता लगाने का आश्वासन दे दिया लेकिन कुछ लोगों के दबाव में आकर वे इस काण्ड की निष्पक्ष जांच न कर सके। फिर क्या था आंदोलन भड़क उठा और कोटद्वार शहर में धारा 144 लगा दी गयी जिसके फलस्वरूप यहाँ के सामाजिक कार्यकर्त्ताओं और छात्रों के जत्थे धारा 144 तोड़ने के लिए सड़क पर उतर आये। इसी के फलस्वरूप कई लोगों को जेल में ठूंस दिया गया। कोटद्वार गढ़वाल की स्थिति भयानक हो गई और ‘चंचल’ जी इस आंदोलन के हीरो बन गये।
ठीक इसी समय गढ़वाल के तत्कालीन जिलाधीश ने ‘चंचल’ से निपटने के लिए एक नयी योजना तैयार की। सात जुलाई सन् 1977 को जब जिलाधिकारी श्री जोसफ ‘गोदाम्बरी काण्ड’ वाली इस घटना को लेकर चिन्तित बैठे थे, उसी समय उनके मस्तिष्क में एक विचार आया और उन्होंने शीघ्र ही अपने स्टेनो को बुलाकर उसे आदेश दिया कि ‘चंचल’ जी के नाम से इस आशय का एक पत्र टाइप करो कि मुझे यह शिकायत मिली है कि आपने सरकार को धोखा देकर स्वतंत्रता संग्रामसेनानी होने का प्रमाण पत्र हासिल किया जबकि आप न कभी जेल में रहे और न ही आपने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया। आप सरकार को धोखा देकर राजनैतिक पेंशन ले रहे हैं। कृपया अपना स्पष्टीकरण तीन दिनों के अन्दर मुझे उपलब्ध करायें नहीं तो आपको मिलने वाली पेंशन बन्द कर दी जायेगी।”
8 तारीख को यह पत्र तहसीलदार लैंसडौन के माध्यम से श्री हरिराम मिश्र ‘चंचल’ को प्राप्त हुआ। पत्र पाते ही श्री ‘चंचल’ जी के ऊपर मानो घड़ों पानी गिर गया और ये इस पत्र को पढ़कर हतप्रद रह गये। पत्र की भाषा के अनुसार इनके द्वारा देश के लिए किये गये त्याग पर अंगुली उठायी गयी थी।
इन्हें अच्छी तरह ज्ञात था कि “अगर मैं इस पत्र का स्पष्टीकरण सीधे-सीधे जिलाधिकारी को दूंगा तो मेरे साथ समुचित न्याय नहीं होगा।” इसलिए इन्होंने अपना स्पष्टीकरण भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अनुसचिव को प्रेषित किया। साथ ही अपने साथ जेल में रहे उन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को भी पत्र प्रेषित किये जो तत्काल देश के उच्चस्थ पदों पर आसीन थे। जिनका उत्तर शीघ्र ही आया और इनके साथियों ने अपने पत्रों के माध्यम से यह सिद्ध किया कि श्री हरिराम मिश्र ‘चंचल’ को सन् 1939-40 में गिरफ्तार करके पौड़ी जेल भेज दिया गया था और बाद में इनका स्थानान्तरण सहारनपुर तथा शाहजहांपुर की जेलों में किया गया।
लेकिन शासन ने इनके द्वारा जुटाये गये साक्ष्यों को अपूर्ण माना और इस छानवीन का दायित्व उन्हीं जिलाधीश महोदय को सौंपा गया जो इनसे खार खाये बैठे थे। परिणाम वही हुआ जो होना था। एक दिन श्री हरिराम मिश्र ‘चंचल’ की राजनैतिक पेंशन बन्द हो गयी और ये इस अपमान के घूंट को भगवान शंकर की तरह चुपचाप पी गये।
ओजस्वी पत्रकार हरिराम मिश्र चंचल
श्री हरिराम मिश्र ‘चंचल’ एक ओजस्वी पत्रकार थे जिसे इनके बड़े भाई कृपाराम मिश्र ‘मनहर’ ने इस क्षेत्र में लाकर खड़ा किया था। काशीरामपुर और कौड़िया की लगभग 500 बीघा जमीन तत्कालीन अंग्रेजी शासकों के हड़प लेने पर जो इन लोगों के पास शेष बची थी, उसको भी श्री ‘चंचल’ एवं उसके परिवार वालों ने बेचकर हैंड बिल छापने प्रेस संचालित करने और अखबार निकालने में भेंट कर दिया था। जैसा कि सर्वविदित है श्री कृपाराम मिश्र ‘मनहर’ ने सन् 1940 में जिस ‘संदेश’ नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन किया। श्री हरिराम मिश्र ‘चंचल’ इस समाचार पत्र के सहकारी सम्पादक और प्रकाशक थे। लेकिन सन् 1940 में श्री ‘मनहर’ के जेल चले जाने पर यह बन्द हो गया। चूँकि इस पत्र के बन्द होने पर भी ये अनेक पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे। “परन्तु अपना पत्र तो अपना ही होता है जिसमें कि सम्पादक अपनी मनोच्छापूर्वक लेखनी चला सकता है।” यह सोचकर श्री हरिराम मिश्र ‘चंचल’ ने सन् 1958 में ‘हिमालय की ललकार’ के नाम एक अन्य पत्र का सम्पादन एवं संचालन किया जो वास्तव में हिमालय की ही ललकार था। इसी पत्र के माध्यम से इस ओजस्वी पत्रकार ने गढ़-गुफाओं के सोये हुए उन सिंहों को जागृत कर दिया जिनका प्रगतिशीलता की सूर्य किरण से साक्षात्कार नहीं हुआ था। इसी की एक आवाज पर वे जागे और इन्होंने इसी के साथ प्रगतिशीलता के आयामों का भी स्पर्श किया।
एक जागरूक पत्रकार के रूप में श्री हरिराम मिश्र ‘चंचल’ ने भ्रष्टाचार में लिप्त उन भ्रष्ट लोगों की इज्जत की बखिया उधेड़ दी जो सफेदपोश बनकर या तो जनता को लूटते या सरकार की लोकोपकारी योजनाओं पर चूना लगा देते थे। इसी पत्रकारिता के बल पर इन्होंने गोदाम्बरी जैसे काण्ड को सार्वजनिक कर सारे समाज को मोटर मजदूरों के पक्ष में किया। इसी पत्रकारिता का पुरस्कार इन्हें अपनी राजनैतिक पेंशन खोने के रूप में मिला और इसी पत्रकारिता के लिए इन्होंने अपना पारिवारिक सुख, शान्ति और अमन-चैन हवन कर दिया।
एक कवि के रूप में
श्री हरिराम मिश्र ‘चंचल’ बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। कविता तो इनकी नसों में प्रवाहित होने वाले रक्त से जुड़ गयी थी। इसीलिए जब कभी भी सामाजिक परिस्थितियों से इनका मन उद्वेलित होता था तो इनके व्यथित मन से कविता की स्रोतस्वनी फूट पड़ती थी। अपने दोनों अग्रज, श्री कृपाराम मिश्र ‘मनहर’ और श्री जगतराम मिश्र ‘अकिंचन’ के सानिध्य में पली-बढ़ी इनकी कविता ही इनकी मानवीय भावों की अभिव्यक्ति थी।
कविवर 'चंचल' की कविता एक समय में देश के स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने वाले सेनानी के रंगों में इन शब्दों के उच्चारण के साथ ही गर्माहट लाने लगती थी।
यहाँ असंख्य तड़प रहे हैं, घोर दासता के बन्धन में। छिपी हुई दुःख भरी कथाएं, यहाँ असंख्यों के क्रन्दन में ।। अत्याचारों का तांडव ये, अब तो नहीं सहा जाता रे। कवित्ते! मेरी बरस पड़ो तुम, बनकर विप्लव के अंगार ॥ देश और समाज के अन्दर एक अद्भुत जागृति लाने वाले कविवर हरिराम मिश्र 'चंचल' जागृति के कवि थे इसीलिए इन्होंने अपनी 'जागृति' नामक कविता के माध्यम से देश और समाज के नागरिकों को जागृत करते हुए कहा - सो रहा था मैं अंधेरे में, किसी ने दीप बाला । थी खड़ी कुछ सामने हो, मुस्कराती एक बाला। जागृति है नाम मेरा, विश्व को हूँ मैं जगाती । तुम कवि हो इसलिए, मैं हूँ तुम्हारे पास आयी ॥ देश को जागृत करो, यह संदेशा हूँ मैं लायी ॥ कविवर हरिराम मिश्र 'चंचल' एक प्रगतिशील कवि थे इसीलिए इनकी कविता में जहाँ समाज के सड़े-गले नियमों के विरुद्ध शंखनाद करने की क्षमता है, वहाँ एक गरीब श्रमिक की पीड़ा को अभिव्यक्त करने का साहस भी। सन् 1940 में शाहजहांपुर की जेल में इन्होंने एक ऐसी कविता लिखी थी जिसका शीर्षक था, 'कविते मेरी बरस पड़ो तुम, बनकर विप्लव के अंगार' इस कविता में कवि ने समाज में व्याप्त घोर आर्थिक विषमता की ओर संकेत करते हुए कहा- घोर परिश्रम की चक्की में, दीन श्रमिक है पिस-पिस जाते। धनिक सेठ उनकी हड्डी पर, ऊंचे ऊंचे महल बनाते ॥ श्री हरिराम मिश्र 'चंचल' ने अपने जीवन में कई लेख लिखे, जिनमें संघर्षो का इतिहास, जनसंघर्ष और पत्रकारिता के शिलालेख जैसे लेख प्रशंसनीय हैं। 'सुहाना सफर' भी इनकी कलम से निकला शब्दों और भावों का अनुपम भंडार है। श्री हरिराम मिश्र 'चंचल' साहित्य, पत्रकारिता और राजनीति के अतिरिक्त समाज के अनेक पहलुओं के अग्रणीय संपोषक भी रहे थे एक समय में गढ़वाल के त्रिपुर कांग्रेस के सदस्य और जिला परिषद पौड़ी गढ़वाल के सबसे कम उम्र के सदस्य भी थे। 'सधै भूमि गोपाल की' के नारे के साथ गढ़वाल के इस नेता ने इसीलिए यहाँ के भूमिहीनों का नेतृत्व कर उन्हें समुचित सम्मान दिलाकर ही चैन की सांस ली।यह भी पढ़ें आत्मा क्या है। उत्तराखंडी गढ़वाली जागर की भूमिका । जागर में आत्मा की अवधारणा
जीवन की अंतिम कहानी
जैसा कि पूर्व भी निवेदन किया गया है कि शासन-प्रशासन के कुचक्र में फंसकर श्री हरिराम मिश्र ‘चंचल’ स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को मिलने वाली पेंशन से हाथ धो बैठे इसलिए वे अन्दर से विचलित हो गये थे। एक ओर समाज के लिए अपना सब कुछ लुटा देने वाला इनके अन्दर का फकीर इस अपमान से अपने को बहुत व्यथित महसूस कर रहा था तो दूसरी ओर इनके बाहर के ‘चंचल’ के ऊपर परिवार का बोझ आ पड़ा था। अपमान, क्षोभ और निर्धनता की रज्जू से बंधा यह ‘चंचल’ शरीर से अचंचल लेकिन मन में अति चंचल हो गया था। इसीलिए एक अक्टूबर सन् 1980 को श्री ‘चंचल’ ने अपने झोले में एक जोड़ी खारी का पायजामा, कुर्ता और अपनी पेंशन रुकने सम्बन्धी कागजात लेकर दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। उनका विचार था कि “2 अक्टूबर के दिन वे राजघाट में महात्मा गाँधी की समाधि में पुष्पांजलि अर्पित करेंगे और बाद में अपने मित्रों से मिलकर अपनी पेंशन सम्बन्धी कागजात ठीक करवाएंगे।”
इसी उद्देश्य को लेकर ये दिल्ली पहुँचे और 2 अक्टूबर को राजघाट में गाँधी जी की समाधि पर पुष्पांजलि अर्पित करने के बाद ये जैसे ही राजघाट से बाहर आये तो तेज बुखार और डायरिया ने इन्हें अपने शिकंजे में जकड़ लिया। इसी अवस्था में श्री हरिराम मिश्र ‘चंचल’ अपने मित्र श्री हर्षमणि के घर पहुँचे। जैसे ही हर्षमणि ने देखा तो उन्होंने तुरन्त ही इन्हें सफदरजंग अस्पताल में भर्ती करवा दिया। इस पूरे दिन ये अर्थ चेतनावस्था में रहे। दूसरे दिन जब इनके मित्र इन्हें देखने आयेतो अस्पताल स्टाफ ने इनके शरीर पर लगी सूई तक नहीं उतारी। इसकी शिकायत जब अस्पताल प्रशासन से की गई तो उसके कान में जूं तक नहीं रेंगी। फिर इन्हें बेड से उठाकर बरामदे में डाल दिया गया लेकिन उनकी इस रुग्णावस्था की सूचना उनके परिवार के पास तक नहीं भेजी गयी।
इस तरह श्री हरिराम मिश्र ‘चंचल’ अचानक 5 अक्टूबर की रात्रि को गायब हो गये। वे गायब होने से पूर्व जीवित भी थे या नहीं, इसका उत्तर किसी के भी पास नहीं था और न ही है। 6 अक्टूबर को प्रातः जब इनके इन्हीं मित्र ने ‘चंचल’ जी के विषय में पूछा तो डॉक्टर अधिकारियों ने ‘चंचल’ जी के गायब होने की बात कही। यह बात जब किसी के गले नहीं उतरी तो चौदह तारीख को अस्पताल प्रशासन के द्वारा इनके कोटद्वार स्थित घर के लिए एक पत्र भेजा गया कि, “आपका मरीज अस्पताल का रिकार्ड लेकर लापता हो गया है।” इस पत्र के कोटद्वार पहुंचते ही परिवार वालों पर तो जैसे वज्रपात हो गया था। एक ओर तो अस्पताल प्रशासन की लापरवाही और दूसरी ओर मानवीय संवदेनाओं से ओत-प्रोत होने का दावा करने वाले चिकित्सकों का उन पर चोरी का इल्जाम लगाना। दानवता की हद को पार कर गया था। 25 अक्टूबर को इनकी धर्मपत्नी अपनी जेठानी श्रीमती प्रतिभा देवी मिश्र के साथ दिल्ली पहुंची और अस्पताल जाकर जब इन्होंने वहाँ के अधिकारियों से इनके लापता हो जाने के संदर्भ में पूछताछ की तो वहाँ से इन लोगों को कोई भी संतोषजनक उत्तर नहीं मिला जिससे इनकी धर्मपत्नी श्रीमती तारा मिश्र ने विनयनगर थाने में इनके लापता होने के प्रथम सूचना दर्ज करवायी। तत्पश्चात् पुलिस प्रशासन ने स्थानीय श्मशान घाटों और एक्सीडेंटों का रिकार्ड देखा तो हरिराम ‘मिश्र ‘चंचल’ के मृतक होने की कहीं भी पुष्टि नहीं हुई। जब श्रीमती तारा मिश्र, ‘चंचल’ जी के आंदोलन के साथी श्री हेमवती नन्दन बहुगुणा से मिली तो श्री बहुगुणा जी ने तत्कालीन गृह राज्यमंत्री वैंकेट सुवैया से श्री ‘चंचल’ की खोज करने के लिए कहा जिस पर श्री सुवैया ने श्रीमती मिश्र की भरपूर सहायता की। इसके लिये उन्होंने उस स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के लापता होने की खबर टेलीविजन, आकाशवाणी तथा समाचारों पत्रों में छपवायी, जो कभी औरों को ढूंढकर लाता था लेकिन अंत कुछ भी हाथ नहीं लगा। एक संघर्षशील पत्रकार, जागरूक नेता और ओजस्वी कवि, समय की उन गहराईयों में खोता चला गया, जहाँ से कोई भी उसे अब तक ढूंढकर लाने का दावा नहीं कर सका है।
श्री हरिराम मिश्र ‘चंचल’ के उस शरीर को लापता हुए आज कई वर्ष हो गये हैं जिसे वार्धक्य और व्याधि का सामना करना पड़ता है। लेकिन उनका यशः शरीर, कविता, पत्रकारिता और समाज सेवा के रूप में आज भी हमारे सामने है। चूँकि इतनी लम्बी अवधि तक वे हमारे बीच कभी भी उपस्थित नहीं हुए इसलिए अब हम उन्हें दिवंगत महानुभावों की श्रेणी में रखते हुए गहन दुःख का अनुभव कर रहे हैं।
लेखक के बारे में
प्रो. नंद किशोर ढौंडियाल ‘अरूण’ , डी. लिट. वरिष्ठ साहित्यकार हैं , जिनकी सौ से भी अधिक पुस्तकें साहित्य की अनेक विधाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं ।
संपर्क :
प्रोफेसर नन्दकिशोर ढौंडियाल ‘अरुण’
डी.लिट्.
‘अरूणोदय’
गढ़वाली चौक, ध्रुवपुर कोटद्वार पौड़ी गढ़वाल
उत्तराखंड ( भारत)