मायने अच्छाई के इस शहर में कुछ और हैं,
अच्छा है कि मुझको यहां अच्छा कहा जाता नहीं.
सोचता हूं कि चुप रहूं मैं भी उन सबकी तरह,
पर देखकर रंगे जमाना चुप रहा जाता नहीं
दर्द अपना हो तो मैं चुपचाप सह लूंगा उसे,
दर्द बेबस आदमी का पर सहा जाता नहीं…
भूख से बच्चे बिलखते बिक रही हैं बेटियां,
चैन से दो रोटियां भी कोई खा पाता नहीं .
शोर चारों ओर है तो चैन कैसे पाऊंगा मैं,
नींद का कतरा नयन में एक ठहर पाता नहीं.
मंच पर चढ़्कर वो देखो,खींचते मुझको भी हैं.
पर आदमी से हो अलग मुझसे जीया जाता नहीं.
चाहता हूँ गीत लिखना मैं भी तो श्रृंगार के.
दर्द में डूबी कलम से कुछ लिखा जाता नहीं ….
…….प्रदीप बहुगुणा ‘दर्पण’
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