कंधों पर थैले लटकाये।
लॉकडाउन का कर उल्लंघन,
भीड़ बने,सड़कों पर छाये॥
शौक नहीं,इनको भ्रमण का,
न कानून तोड़ना,है मंजूर।
लाचार हुए नियति के हाथों,
चल रहे निरंतर,ये मजदूर॥
जहाँ हैं,गर वहीं रहे तो,
क्या खाएँगे,क्या ये पीयेंगे।
काम नहीं,पैसा भी नहीं है,
भूखे पेट,कब तलक जीएँगे॥
कौन जाने,कैसे तय होगा,
हजारों मील का ये सफर।
पेट हैं खाली,पाँवों में छाले,
फिर भी सकते नहीं ठहर॥
कुछ तो मरे बीच राह में,
कुछ कटे रेल की पटरी पर।
जान गंवा दी बेचारों ने,
पूरा नहीं,कर सके सफर॥
अच्छी तरह जानते हैं कि,
निगल सकती इन्हें बीमारी।
पर इनके हालात ही ऐसे,
भूख पड़ी,मौत पर भारी॥
दर्द इनका समझ सको तो,
आगे आओ,हाथ बढ़ाओ।
मदद करो,राहों में इनकी,
कुछ तो इनका,कष्ट मिटाओ॥
——प्रदीप बहुगुणा ‘दर्पण’
(कोरोना महामारी के चलते लॉकडाउन में बेबस मजदूरों के हालात पर लिखी गई कविता)
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Laazwaab sir..
Itni marmik baaton ko apni klm ki shakti mei pirone k liye aapka abhar ..
अति सुंदर, सजीव प्रस्तुति।
टिप्पणियों के लिए धन्यवाद।