
धराली की पीड़ा पर...
मेरे शब्द जैसे मौन से हो गए हैं।
धराली की धड़कनों के साथ,
वो भी कहीं खो गए हैं ।
लोगों की चीखें, रुदन की आवाजें,
दिल दहला देने वाले वो मंज़र
आंखों के सामने हैं।
जिनकी तलाश है,
वो कहीं भी दिख नहीं रहे हैं।
रो रही है हर वो आंख ,
जो थाल सजा कर बैठी थी।
सूनी रहेगी हर वो कलाई,
जिसे रक्षाबंधन का इंतजार था।
कहां गई वो जीवट,
जो धराली की धड़कनों में
कहीं बसती थी?
क्या सोचा होगा उन धड़कनों ने,
कि ये सैलाब उन्हें
कहां ले जाएगा?
घर की दहलीज से उठाकर मौत के दरवाज़े पर छोड़ आएगा ।
कितने रिश्ते पल भर में आई
उस बाढ़ में बह गए।
लोग दूर- दूर से चिल्लाते,
बस चिल्लाते ही रह गए।
कितने रिश्तों में उलझनें रही होंगी
कोई सुबह लड़ा होगा तो,दिन में
माफ़ी मांगने के लिए झुका होगा।
सोचो सब कुछ मिट्टी में कैसे
आज भी दफन होगा।
आज भी उस मलबे के भीतर,
उन दीवारों में शोर होगा।
मां गंगा की गोद में सोकर भी
उसे अफसोस तो होगा, क्योंकि
कौन चाहता है अपनों से दूर होना
आज उन बची धड़कनों के मन में
सवालों का ज़ोर होगा
क्या कहूं? कैसे कहूं ?
जो ये सब हुआ।
उसे कैसे मैं शब्दों में बयां करूं
कुछ भी कह पाना मुश्किल है।
उस भयावह मंजर को याद कर,
कलम उठाना मुश्किल है।
दिल में दुःख है, आंखों में आंसू,
बस हर तरफ़ शोक ही शोक है।
धराली तेरे मिट जाने का,
हमें बहुत अफसोस है।
.... श्रुति

हिंदी में स्नातकोत्तर, बी.एड उपाधि प्राप्त श्रुति थपलियाल संवेदनशील कवयित्री हैं,जो पढ़ने लिखने के साथ साथ समय समय पर अपने मन के उद्गारों को कविता में ढालने का हुनर रखती हैं। ‘ भावसंचय’ पर उनकी उपस्थिति का स्वागत, और उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाएं… संपादक